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जब काटा कि मुसाफ़त ए शब आफ़ताब ने

जब काटा कि मुसाफ़त ए शब आफ़ताब ने

जलवा किया सहर के रुखे बेहिजाब ने

देखा सुवे फलक शाहे गरदुं रकाब ने

मुर्ह कर सदा रफीको को दी उस जनाब ने

आख़िर है रात हम्द ओ सनाये ख़ुदा करो

उठो फ़रीज़ाये सहरी को अदा करो

हां ग़ाज़ियों ये दिन है जिदल ओ क़िताल का

यान खून बहेगा आज मोहम्मद की अल का

चेहरा ख़ुशी से सुर्ख़ है ज़हरा के लाल का

गुज़री शबे फ़िराक़ दीन आया विसाल का

हम वो हैं गम करेंगे मालक जिन के बर्बाद

रातें तड़प के काति है इस दिन की बर्बादी

ये सुनके बिस्तार से उठे वो खुदा शिनास

एक एक ने ज़ेबे जिस्म किया फकीरा लिबास

शाने मुहासिनो में किये सब न बी हीरास

बंदे अमामे ऐ इमामे ज़मान के पास

रंगीन आबयेन दोष पे कमरे कैसे हुवे

मुस्क ओ ज़िबाद ओ इत्र में कपडे बसे हुवे

ख़ैमे से निकले शाय के अज़ीज़ाने ख़ुश खिसाल

जिन में कई थे हज़रते खैरुन निसा के लाल

क़ासिम सा गुल बदन अली अकबर सा ख़ुश जमाल

एक जा अक़ील ओ मुस्लिम ओ जाफ़र के नौ निहाल

सब के रुख़न का नूर सिपाही बारिन पर था

अथारा आफताबों का घुंचा ज़मीन पर था

नागाह चरख पर खाते अब्याज़ हुवा अयान

तशरीफ़ जानेमाज़ पे लाए शाहे ज़माँ

सज्जादे बिच गए अकाबे शाहे इन्स ओ जान

सौते हसन से अकबर ए महरूह ने दी अज़ान

हर एक की चश्मे आंसुओं से दब गई

गोया सदा रसूल की कानों में आगई

नमूसे शाह रोते थे खैमे में ज़र ज़र

छुपके खड़ी थी सहन में बानो ए नामदार

ज़ैनब बलायें लेके ये कहती थी बार बार

सदके नमाज़ियों के मुअज़्ज़िन के मुख्य निसार

करते हैं यूं सना ओ सिफत ज़ुल जलाल की

लोगन अज़ान सुनो मेरी यूसुफ़ जमाल की

ये हुस्न ए सौत और ये क़िरत ये शाद ओ मदद

हक्का के अफसाहुल फुसुहा थाय इन्ही के जद्द

गोया है लहन ए हज़रत ए दाऊद ब खिरद्द

या रब्ब रख इस सदा को ज़माने में ता अब्द

शूबे सदा में पंखड़ियां जैसे फूल में

बुल बुल चहक रहा है रियाज़ ए रसूल में

सफ़ में हुवा जो नाराय क़द क़मातिस सलात

क़ायम हुवी नमाज़ उठे शाहे कायनात

वो नूर की सफ़ीन वो मुसल्ली फलक सिफ़ात

सरदार के क़दम के तले थी राहे निजात

जलवा था ता बा अर्शे मुअल्ला हुसैन का

मुस हफ़ की लौह थी के मुसल्ला हुसैन का

कुरान खुला हुआ के जमात की थी नमाज

बिस्मिल्लाह आगे जैसे हो यूं तो शाहे हिजाज़

सतरीन थी या सफ़ीन अक़ब ए शाहे सरफ़राज़

करती थी खुद नमाज़ भी इनकी अदा पे नाज़

सदक़े सहर बयाज़ पे बैंस सुतुर की

सब आयतें थी मुस हफ़े नातिख की नूर की

दुनिया से उठ गया वो क़याम और वो क़ुद

इनके लिए थी बंदगी वाजिबुल वुजूद

वो अज्ज वो तवील रुकु और वो सुजूद

ता’त में निस्त जानता थाय अपन हस्त ओ बड

ताक़त न चलने फिरने की थी हाथ पैरों में

गिर-गिर के सजदे करते थे तेगों की छाँव में

फ़ारिग़ हुवे नमाज़ से जब किबला ओ अनाम

ऐ मुसाफ़हे को जवानां ए तशनाकम

चूमे किसे ने दस्त ए शहंशाह ए खास ओ आम

आख़िर मिले किसी ने कदम पर एहतेराम

क्या दिल था क्या सिपाह ए रशीद ओ सईद थी

बा हम मुअनाके थाय के मरने की ईद थी

ज़री थी इल्तेजा थि मुनाजात थि इधर

वान सर काशी ओ ज़ुल्म ओ ता’अद्दी ओ शोर ओ शर

कहता था इब्ने साद ये जा जा के नहर पर

घाटों से होशियार तराई से बा खबर

दो रोज़ से है तश्ना दहानी हुसैन को

हन मरते दम भी दो न पानी हुसैन को

बैठे थे जानेमाज़ पे शाहे फ़लक शरीर

नगाह करीब आके गिरे तीन चार तीर

देखा हर एक ने मुड़के सुवे लश्कर ए कसीर

अब्बास उठे टोल के शमशीर नज़ीर

परवाने थे सिराज ए इमामत के नूर पर

रोके सिपर हुज़ूर करामत ज़हूर पर

अकबर से मुड़के कहने लगे सरवरे ज़माँ

बंधे हैं सरकशी पर कमर लशकारे गिरां

तुम जाके कहदो खैमे में ये ऐ पिदर की जान

बच्चों को लेके सहन से हट जाए बिबियान

ग़फ़लत में तीर से कोई बच्चा तलफ़ न हो

डर है मुझे के गार्डेन असगर हदफ ना हो

कहते थे ये पीसर से शाहे आसमान शरीर

फ़िज़ा पुकारि ड्योढ़ी से ऐ ख़ल्क़ के अमीर

है अली की बेटियां किस जा हो गोशगीर

असग़र के गहवारे तक आकर गिरे हैं तीर

गर्मी से सारी रात ये घुट घुट के रोये हैं

बचे अभी तू सर्द हवा पाके सोया है

बाकिर कहीं परहा है सकीना कहीं है ग़श

गरमी की फसल ये तब ओ तब और ये आतश

रो रो के सोगये हैं सघिराने महवश

बच्चों को लेके यान से कहां जाए फाका काश

ये किस ख़ता पे तीर पिया पे बरसते हैं

ठंडी हवा के बर्बाद बच्चे तरसते हैं

उथे ये शोर सुंके इमामे फलक विकार

ड्योढ़ी तक आये ढालों को रोके रफीक ओ यार

फरमाया मुड़के चलते हैं अब बाहर कर्जदार

कामरे कसो जिहाद पे मंगवाओ रहवार

देखें फ़िज़ा बहिश्त की दिल बाग़ बाग़ हो

उम्मत के काम से कहीं जल्दी फिराग़ हो

खैमे में जाके शाय ने ये देखा हराम का हाल

चहरे तो फक़्क है और…

ज़ैनब की ये दुआ थी के ऐ रब्बे ज़ुलजलाल

बच जाए इस फसाद से खैरुन निसा का लाल

बनो ए नाईक नाम की खैती हरि रहे

संदल से मांग बच्चों से गोदी भारी रहे

बोले करीब जाके शाहे आसमान जनाब

मुज़तर न हो दुआएं हैं तुम सब की मुस्तजाब

मग़रूर हैं ख़ता पे ये सब ख़नुमा ख़राब

खुद जाके में दिखता हूं इनको रहे सवाब

मौका नहीं बाहन अभी फरियाद ओ आह का

लाओ तबर्रुकात रिसालत पनाह का

मेराज में रसूल ने पहना था जो लिबास

कश्ती में लाई ज़ैनब उसे शाहे दीन के पास

सर पर रखा अमामे सरदारे हक़ शिनास

पहिने कबाए पाक रसूले फलक आसास

बर मेई दुरुस्त ओ चुस्त था जामा रसूल का

रुमाल फातिमा का अमामा रसूल का

कपड़ो से अरही थी रसूले ज़मां की बू

दूल्हे ने नहीं सुनी होगी ना ऐसी दुल्हन की बू

हैदर की फातिमा की हुसैन ओ हसन की बू

फैली हुवी थी चार तरफ पंजेतन की बू

लुट ता था इतर वादी अंबर सरिश्त में

गुल झूमते थे बाग़ में रिज़वान बहिश्त में

पोशाख सब पहन चुके जिस बांध शाहे जमां

लेकर बलाएं भाई की रोने लगी बहन

कहती थी आज नहीं हैदर ओ हसन

अम्मा कहाँ से लाये तुम्हें अब ये वतन हो

रुखसत है अब रसूल के यूसुफ़ जमाल की

सदके गई बलें तू लो अपने लाल की

हथ्यार इधर लगा चुके मौला ए खास ओ आम

तय्यर उधर हुवा आलम ए सैय्यदे अनाम

दुआएं मांगती गिर्द थी सैदानियां तमाम

रोटी थी थामे चोबे आलम ख्वाहरे इमाम

तेघें कमर में दोष पे शामली पड़े हुवे

ज़ैनब के लाल जेरे आलम आ खड़े हुए

गह माँ को देखते थे कभी जानिबे आलम

न’रा कभी ये था के निसार ए शाहे उमाम

करते थे दोनों भाई कभी मशवरे बहम

आहिस्ता पूछेते कभी मा से वो ज़ी हाशम

क्या सवाल है अल्लिये वाली के निशान का

अम्मा किसे मिलेगा आलम नाना जान का

नन्हे नन्हे हाथों से उठेगा ये आलम

छोटे क़दों में सबसे चीन में सबो से काम

निकले तनो से सिब्ते नबी के कदम पे दम

ओहदा यहीं है बस यही मनसब यही हशम

रुखसत तलब अगर हो तू ये मेरा काम है

मा सदके जाए आज तू मरने में नाम है

फिर तुम को क्या बुज़ुर्ग था जो फ़ख़रे रोज़ ग़ार

ज़ेबा नहीं है वस्फ़ ए इज़ाफ़ी पे इफ़्तेख़ार

जोहार वो है जो तय करे आप आशकर

दिखलादो अज हैदर ओ जाफ़र का क़र्ज़

तुम क्यों कहो के लाल खुदा के वाली हो

फौजें पुकारे खुद के नवासे अली का हैं

अब जिसको तुम कहो उसे दीन फौज का आलम

कि अर्ज़ जो सलाह शाहे आसमान हशम

फरमाया जबसे उठेगी जहर ए बा करम

उस दिन से तुमको माँ की जगह पता है हम

मालिक हो तुम बुज़ुर्ग कोई हो के ख़ुद हो

जिसको कहो उसे ये ओहदा सिपार्ड हो

बोली बहन के आप भी तो लें किसी का नाम

है किस तरफ तवज्जो ए सरदार ओ खास ओ आम

गर मुझसे पूछता है शाहे आसमान मकाम

कुरान के बाद है तू अली ही का कुछ कलाम

शौकत में क़द्दम में शान में हमसर नहीं कोई

अब्बास ए नामदार से बेहतर नहीं कोई

आशिक गुलाम खादिम ए देरीना जान निसार

फ़रज़न्द भाई जिनते पहलु वफ़ा शीआर

जर्रार यादगार ए पिदर फखरे रोजगार

रहत रस मुति ओ नामदार ओ नामदार

सफदर है शेर दिल है बहादुर है नायक है

बेमिसाल सैकडन में हज़ारों में एक है

आँखों में अश्क भर के ये बोले शाहे ज़माँ

हन थी यही अली की वसीयत भी ऐ बहन

अच्छा बुलाएं आप किधर हैं वो सफ़ शिकन

अकबर चाचा के पास गए सुनके ये सुखन

कि अरज़ इंतेज़ार है शाहे ग़्यूर को

चलो फुफी ने याद किया है हुजूर को

अब्बास आये हाथों को ज़ोरदे हुज़ूर ए शाह

जाओ बहन के पास ये बोला वो दिन पनाह

ज़ैनब वही आलम लिए आई बा इज्जो जह

बोले निशान को लेके शाहे अर्श बारगाह

इनकी ख़ुशी वो है जो रिज़ा पंजेटन की है

लो भाई लो आलम ये इनायत बहन की है

मुँह करके सुवे क़बरे अली फिर किया ख़िताब

ज़र्रे को आज करदिया मौला ने आफ़ताब

ये अर्ज़ ख़ाकसार है या अबू तुराब

आक़ा के आगे हुन में शदाथ से बाहर याब

सर तन से इब्ने फातिमा के रु बारू गिरे

शब्बीर के पसीने पे मेरा लहू गिरे

ये सुनके आओगे अब्बास ए नामवर

शोहर की तरफ से सिर्फ एक नजर

ली सिब्ते मुस्तफा की बातें बा चश्मे तर

ज़ैनब के गिर्द फिरके ये बोली वो नौहागर

फ़ैज़ आप का है और तसद्दुक इमाम का

इज़्ज़त बड़ी कनीज़ की रुतबा ग़ुलाम का

सर को लगा के चगाथी से जैनब ने ये कहा

तू अपनी मांग से ठंडी राखे सदा

कि अर्ज़ मुझसे लाख कनीज़ें हूं तू फ़िदा

बनो ए नामवर को सुहागन रखे खुदा

बचे जिए तरक्की ए इक़बाल ओ जह हो

साए में आप के अली अकबर का ब्याह हो

नगाह अके बाली सकीना ने ये कहा

कैसा है ये हुजूम किदर है मेरे चचा

ओहदा आलम का उनको मुबारक करे खुदा

लोगन मुझे बलाएं तू लेने दो एक ज़रा

शौकत ख़ुदा बढ़ाए मेरे अम्मू जान की

मैं भी तू देखूं शान अली के निशान की

अब्बास मुस्कुरा के पुकारे का आओ आओ

अम्मु निसार प्यास से क्या हाल है बताओ

बोली लिपट के वो के मेरी मश्क लेते जाओ

अब तू आलम मिला तुम्हें पानी मुझे पिलाओ

तोहफ़ा न कोई दीजिए न इनाम दीजिए

क़ुर्बान जान पानी का एक जाम दीजिए

नगाह बढ़े आलम के लिए अब्बास ए बा वफ़ा

दौरे सब अहले बैत खुले सर, बरहना पा

हज़रत ने हाथ उठाया के ये इक इक से कहा

लो अलविदा ऐ हरम ए पाक ए मुस्तफ़ा

सुबहे शब ए फिराक है प्यारों को देख लो

सब मिल की डूबे हुवे तारों को देख लो

शाय के क़दम पे ज़ैनब ए ज़र ओ हाज़ीन गिरी

बानो पछाड़ खा के पिसर के कारिन गिरी

कुलसुम थार थारा के बरुहे ज़मीन गिरी

बाकिर कहीं गिरा तू सकीना कहीं गिरी

उजड़ा चमन हर एक गुल ताज़ा निकल गया

निकला आलम के घर से जनाज़ा निकल गया

नागा उधर से तीर चले जानिबे इमाम

घोड़ा बड़ा के आप ने हुज्जत भी की तमाम

निकले इधर से शाय के रफीकान ए तशनाकम

बे सर हुवे परों में सारा ने सिपाह ए शाम

बाला कभी थी ताएघ कभी ज़ेर ए तांग थी

एक एक की जंग मालिक और अश्तर की जंग थी

अल्लाह रे अली के नवाज़ों की क़र्जर

डोनो के आला थाय के चलती थी जुल्फिकार

शना काटा किसी ने जो रोका सिपर पे वार

गिनाती थी ज़ख्मियों की ना किश्तों का था शुमार

उतने सवार कत्ल किये थोड़ी देर में

डोनो के घोड़े छुप गए लाशों के ढेर में

किस हुस्न से हसन का जवां हसीन लड़ा

घिर-घिर के सूरते असद ए ख़ुशमग़िन लड़ा

दो दिन की भूख प्यास में वो महजबीन लड़ा

सहरा उलट के यूं कोई दूल्हा नहीं लाडा

हमले दिखा दिये असद ए किरदगार के

मक़तल में सुए अर्ज़क ए शामी को मार के

चमकी जो तेघ हज़रते अब्बास ए अर्श जाह

रूहुल अमीन पुकारे के अल्लाह की पनाह

ढालों में चुप गया पिसर ए सद रु सियाह

ख़ुशियों से बंद हो गई अमन ओ अमन की राह

झपटा जो शेर शोक में दरिया की सैर के

ले ली तराई ताइघों की मौजों को फेर के

बे सर हुवे मुवक्किल ए सर चश्मा ए फ़ुरात

हल चल में मिसल ए मौज सफ़ों को ना था सबात

दरिया में गिरके फ़ौट हुवे कितने बुरे सिफ़ात

गोया हबाब होगे थे नुक्ता ए हयात

अब्बास भर के मश्क को यूं तशनालब लड़ाए

जिस तरह नहरवान में अमीर ए अरब लड़ाय

आफत थी हरब ओ ज़र्ब ए अली अकबर ए दिलेर

घुसे में झपटे सेर पे जैसे गरसीना शेर

सब सर बुलंद अतीत ज़बरदस्त सब थे ज़ेर

जंगल में चार सिम्पट हुवे ज़ख्मियों के ढेर

सिरन के उतरे तन से जो थे रण चढे हुवे

अब्बास से भी जंग में कुछ था बढ़े हुए

तलवारें बरसी सुबह से नुसफन निहार तक

हिलती रही ज़मीन लरज़ते रहे फलक

काम्पा किये परों को सिमते हुवे मालक

ना’रे ना फिर वो था ना वो ताइघों की थी चमक

ढालों का दौर बर्छियों का आज हो गया

हंगामा ए ज़ुहर ख़तमा ए फ़ौज हो गया

लाशे सबो के सिब्ते नबी खुद उठाके लाये

कातिल किसी शहीद का सर कटने न पाये

दुश्मन को भी ना दोस्त की फुरसत खुदा दिखाये

फरमाते थे बिछड़ गए सब हम से है हाय

इतने पहाड़ गिर पड़े जिस पर वो ख़त्म ना हो

गर सौ बरस जियौं तौ ये मजमा बहम न हो

ख़म होगे ये दाग़ उठाके इमामे दीन

झुक कर बना हिलाल ए नबी का माहे जबीं

यूं दर्द में तड़प के किआ नालये हज़िन

हिलने लगे पहाड़ लार्ज़ने लगी ज़मीन

अयी जिगर को तब न इस वारेदात की

खुश्की में लगी डूबने कश्ती हयात की

जब सफ़ काशी की धूम हुवी क़त्ल गाह में

तसवीर ए मर्ग फिर गई सब की निगाह में

दूबे रफीक ए यूसुफ ए दीन हक की चाह में

दफ्तर खुला अजल का हुसैनी सिपाह में

जांबाजियां दिखाके जरी नाम कर गए

खाके शिफ़ा पर नूर के दाने बिखर गए

जिस वक़्त आमद अमादे सैफ़ ए ख़ुदा हुवी

हाल चल पड़ी हर एक के दर पे क़ज़ा हुवी

नबूद जिंदगी हुवी हस्ती फना हुवी

हिम्मत दिलों के जिस्म से कुव्वत जुदा हुई

लब्रेज़ होके उमर के सघर छलक गे

काम्पी ज़मीन पहाड़ जगह से सरक गए

मैदान में जब रियाज़े हुसैनी ख़िज़ां हुआ

दुनिया से कारवां शाहे दिन का रावण हुआ

दरिया ए खून में घर हर एक नौजवान हुआ

हमशक्ले मुस्तफ़ा भी शहीदे सिनान हुआ

रोते थे शाह लाशो में तन्हा खड़े हुए

थाय खाक पर कलेजे के टुकड़े पड़े हुवे

गर्मी का रोज़ जंग क्यों करूँ बयान

डर है के मिसल ए शमा ना जलने लगे जबान

वो लू के अल हज़ार वो हररथ के अल अमन

रण की ज़मीन तू सुर्ख़ थी और ज़र्द आसमां

आब ए खुनुख को ख़ल्क़ तरसती थी ख़ाक पर

गोया हवा से आग बरसती थी खाक पर

वो लू वो आफ़ताब की हिद्दत वो तब ओ तब

काला था रंग धूप से दिन का मिसाल ए शब

खुद नहर ए अलकमा के भी सुखे हुवे थाय लैब

खैमे जो थाय हिबाबोन के टैप ते थाय सब के सब

उठती थी ख़ाक ख़ुश्क था चश्मा हयात का

खौला हुआ था धूप से पानी फुरत का

झीलों से चार पाये न उठे थे तब शाम

मस्कन में मछलियाँ के समंदर का था मकाम

आहु जो कहिले थाय तौ चिते सियाह फैम

पत्थर भी सब पिघल गए थे मिसल ए मौम खाम

सुरखी उड़ी थी फूलों से सब्ज़ी गायह से

पानी कुवें में उतरा था साय की चाह से

कोसों किसी शजर में ना गुल थे ना बारग ओ बार

एक एक नखल जल रहा था सूरत ए चिनार

हंसता था कोई गुल ना लहकता था सब्ज़ज़ार

कांता हुई थी सुख के हर शख़्स ए बार दर

गरमी ये थी कि ज़िस्ट से दिल सब के सर्द थे

पत्ते भी मसले ए चेहरा ए मदक़ूक़ ज़र्द थे

गिर्दाब पर था शोला ए जवाला का गुमान

अंगारे थे हबाब तो पानी शरर फिशां

मुँह से निकल नहीं थी हर एक मौज की ज़बान

ताह पर थे सब निहंग मगर थी लबों पे जान

पानी था अगर गरमी और रोज़ हिसाब थी

माही जो सीख ए मौज तक आई कबाब थी

आईना ए फ़लक को ना थी तब ओ तब की तब

छिपने को बर्क चाहिए थी दामन ए साहब

सब के सिवा था गरम मिज़ाजों को इज़्तिराब

काफ़िर ए सुबह ढूंढता फिरता था आफताब

भड़की थी आग गुम्बद ए चरख ए असीर में

बादल छुपे थे सब कुर्रा ए ज़म्हारीर में

शेर उठे थे ना धूप के मारे कचाद से

आहू ना मुंह निकलते थे सब्ज़ जरूर से

आइना महर का था मुकद्दर ग़ुबार से

गरदन को टप्प चढ़ी थी ज़मीन के बुखार से

गरमी से मुज़तरिब था ज़माना ज़मीन पर

भुन जाता था जो गिरता था दना ज़मीन पर

अबे रावण से मुंह ना उठते थे जानवर

जंगल में छुपे फिरते थे तैंर इधर उधर

मर्दम था साथ क्षमा के अंदर अरक ​​में तार

जिस खाना ए मिज़ा से निकलती न थी नज़र

गर चश्मे से निकल के तहर जाए राह में

पार जाए लाख अबले पाए निगाह में

इस धूप में खड़े थे अकयले शाहे उमाम

न दमन ए रसूल था न साया ए आलम

उदी थी लब ज़बान में कांटे कमर में ख़म

शोले जिगर से आह के उठती थी दम बदाम

बे अब तीसरा था जो दिन मेहमान को

होती थी बात बात में मिकनत ज़बान को

कहता था इब्ने साद के ऐ आसमां जनाब

बय्यात जो किजिए अब भी तू हाज़िर है जामे आब

फरमाते थे हुसैन के ऐ खानूमा ख़राब

दरिया को ख़ाक जानता है इब्ने बू तुराब

फ़ासीक़ है पास कुछ तुझे इस्लाम का नहीं

अब ए तबा हो ये तू मेरे काम का नहीं

गर्जुम का नाम लूं तू अभी जाम लेके आये

कौसर यहीं रसूल का एहकाम लेके आये

रूहुल अमीन ज़मीन पर मेरा नाम लेके आये

लश्कर मलक का फतह का पैग़ाम लेके आये

चाहूँ जो इंकलाब तू दुनिया तमाम हो

उलटे ज़मीन यूं के ना कुफ़ा ना शाम हो

फरमाके ये निगाह जो कि सुव्वे जुल्फिकार

ठर्राके पिचले पांव हटा वो सितम शि’आर

मजलूम पर सफ़ों से चले तीर बेशुमार

आवाज़ ए कौस हरब हुवी आसमां के पार

नैज़े उठके जंग पर असवर तुल गए

काले निशान सिपाह ए सैरों में खुल गए

जब रण में तेघ तौल के सुल्तान ए दीन बढ़े

गीति के थाम लेने को रूहुल अमीन बढ़े

मानिंद शेर ए हक़ कहीं तहरे कहीं बढ़े

गोया अली उलट ते हुवे आस्तीन बढ़े

जलवा दिया जरी ने उससे मुसुफ़ को

मुश्किल कुशा की ताएघ ने छोड़ा गिलाफ को

अल्लाह रे तैज़ी ओ बरश इस शोला रंग की

चमकी सवार पर तू खबर ले आई तंग की

प्यासी फकत लहू की तालाबगर जंग की

हाजत उसे ना सं की थी और ना संग की

ख़ून से फ़लक को लाशों से मक़तल को भारती थी

सौ बार बांध में चरख पे चढ़ती उतरती थी

साइन पे चल गई तू कलेजा लहु हुवा

गोया जिगर में मौत का नाखन फ़रु हुआ

चमकी तू अल अमन का घुल चार सु हुवा

जो इसके मुंह पर आ गया बे आबरू हुवा

रुका था एक वार न दस से न पांच से

चेहरे सियाह होगे थे इस की आंच से

बिच्छ बिच्छ गई सफ़ों पे सफ़िन वो जहां चली

चमकी तू इस तरफ इधर आई वहां चली

डोनो तरफ की फ़ौज पुकारि कहाँ चली

इस ने कहा इधर वो पुकार यहां चली

मुंह किस तरफ है ताेघ जानों को खबर न थी

सर गिर रहे थे और तनों को खबर ना थी

अल्लाह रे ख़ौफ़ तेग़ ए शाहे कायनात का

जहर आह था आब खौफ के मारे फुरात का

दरिया में हाल ये था हर एक बुरा सिफ़ात का

चार फरार का था न यारा सब्त का

घुल गया था के बरक़ गिरती है हर दरआ पॉश पर

भागो खुदा के कहर का दरिया है जोश पर

हर चंद मचलियाँ थी जीरा पॉश सर बसर

मुँह खोले चिपती फिर थी लेकिन इधर उधर

भागी थी मौज छोर के गिर्द

थाय ताह नशीं नाहंग उबरते न थाय मगर

दरिया न थाम ता ख़ौफ़ से इस बर्क ओ ताब के

लेकिन पड़े थे पांव में चले हुबाब के

फिर तू ये घुल हुवा के दुहाई हुसैन की

अल्लाह का ग़ज़ब है लड़ै हुसैन की

दरिया हुसैन का है तराए हुसैन की

दुनिया हुसैन की है ख़ुदाई हुसैन की

बेड़ा बचाया आप ने तूफ़ान से नूंह का

अब रहम वास्ता अली अकबर की रूह का

अकबर का नाम सुनके जिगर पर लगी सीना

आंसू भर आए रोक ली रहवार की ‘इना

मुध कर पुकारे लाशे पिसर को शाहे ज़मा

तुम ने ना देखी जंग मेरी ऐ पिदर की जान

क़स्में तुम्हारी रूह की ये लोग देते हैं

लो अब तू जुल्फिकार को हम रोक देते हैं

आई निदाये ग़ैब के शब्बीर मरहबा

इस हाथ के लिए थी ये शमशीर मरहबा

ये आबरू ये जंग ये तौकीर मरहबा

दिखलादी मां के दूध की तासीर मरहबा

ग़ालिब किया खुदा ने तुझे कायनात पर

बस खटीमा जिहाद का है तेरी जात पर

बस अब न कर विघा कि हवास ऐ हुसैन बस

दम ले हवा में चांद नफस ऐ हुसैन बस

गरमी से हम्पता है फरास ऐ हुसैन बस

वक़्ते नमाज़ ए असर है बस ऐ हुसैन बस

प्यासा लड़ा नहीं कोई यूं इसदेह में

अब एहतेमाम चाहिए उम्मत के काम में

लब्बैक कहके ताएग राखी शाय ने मियाँ में

पलटी सिपाह आई कयामत जहां में

फिर सरकशो ने तीर मिलाये कमान में

फिर खुल गए लिपट के फेरे निशान में

बेकस हुसैन ज़ुल्म शिआरों में घिर गए

मौला तुम्हारे लाख सवारों में घिर गए

सीने पे सामने से चले दस हज़ार तीर

छठी पे लग गई कई सो एक बार तीर

पहलु के पार बरचियां सीने के पार तीर

पढ़ते थे दास जो खैंचते थाय तन से चार तीर

यूं था खुदांग जिल्ले इलाही के जिस्म पर

जिस तरह ख़ार होती है सही के जिस्म पर

चलते थे चार सिम्पट से भले हुसैन पर

टूटे हुवे थे बरचियोन वाले हुसैन पर

कातिल थे खंजरों को निकले हुसैन पर

ये दुख नबी की खुदा के पले हुसैन पर

तीर ए सितम निकलने वाला कोई नहीं

गिरते थे और संभलने वाला कोई नहीं

ज़ख्मो से चूर-चूर हुआ फातिमा का लाल

सरदे रियाज़ अहमद ओ हैदर हुवा निधाल

चेहरे पर ख़ून माल के बसअद हसरत ओ मलाल

कि अर्ज़ शाय ने शुक्र है ऐ रब्ब ए ज़ुलजलाल

बचपन से रोज़ ओ शब थी यही आरज़ू मुझे

हां रब्ब तेरे करम ने किया सुरखुरु मुझे

इस हाल से जो सैफ की शिद्दत हुई सिवा

सदमा हुवा जुदा ता’ब तश्नगी जुदा

आशिस्ता रहवार से हज़रत ने ये कहा

अब वक़्त है विदा का ऐ अस्ब ए बा वफ़ा

जंगल में घर बतूल का लुट ता है जुलजना

अब साथ एक उमर का छुट ता हा ज़ुल्जनाह

ऐ ख़ुश ख़त्म अब ना बचेगा तेरा सवार

अब ये गुलु ए ख़ुश्क है और तेग़ ए आबदार

अब लाश पर ग़रीब के दौड़ेंगे रहवार

पमाल होगा अब शाहे मर्दों का गुलज़ार

बैठेगा सीना ए पिसर ए बू तुराब पर

कातिल धरेगा पांव खुदा की किताब पर

जालिम मेरे गले पर जो खंजर फिरेगा

तुझसे ये हाल कहार का देखा ना जाएगा

नाला हरम का हश्र ज़माने में लगेगा

फ़रते ग़म ओ आलम से जिगर थरथराएगा

अब होगा सामना क़लक़ ओ इज़्तेरार का

नाइज़ पे सर चढ़ेगा तेरे शहसवार का

लाखों में एक बेकस ओ दिलगीर है

फरजंद ए फातिमा की ये तौकीर है

भले वो और पहलु ए शब्बीर है

वो जहर में बुझाये हुवे तीर है

घुस्से में थे जो फौज के सरकश भरे हुवे

ख़ाली किये हुसैन पे तरकश भरे हुए

वो गार्ड थी जो भागते फिरते था वक्त ए जंग

एक संगदिल ने पास से मारा जबीं पर संग

सदमे से ज़र्द होगया सिब्त ए नबी का रंग

माथे पर हाथ था के गले पर लगा खुदांग

थामा गला जनाब ने माथे को चोद के

निकला वो तिर हक ए मुबारक को तोड़ के

लिखा है तीन भाल का था नावके सितम

मुंह खुल गया उलट गई गार्डन रुका जो बांध

खैंची सारी गैले की तरफ से बा चश्मे नाम

भलें निकले पुश्त की जानिब से होके खाम

उबला जो खून निकलता हुवा बांध ठहर गया

चुल्लू राखा जो जख्म के नीचे तू भर गया

गिरते हैं अब हुसैन फरास पर से है ग़ज़ब

निकली रिकाब पाये मुतहहर से है ग़ज़ब

पहलु शिगाफ़्ता हुवा खंजर से है ग़ज़ब

घश में झुके अमामा गिरा सर से है गज़ब

क़ुरआन रहले ज़ीन से सर ए फर्श गिर पढ़ा

दीवार ए काबा बइठ गई अर्श गिर पढ़ा

गिर कर कभी उठे कभी रखा ज़मीन पर

उगला कभी लहू तौ संभाल कभी जिगर

हसरत से ख़याम की जानिब कभी नज़र

करवत कभी तड़प के इधर ली कभी उधर

उठ बैठे जब तौ ज़ख्म से बरछी के फल गिरे

तीर और तन में गड्ड गए जब मुंह के भल गिरे

जंगल में आई फातिमा ज़हरा की ये सदा

उम्मत ने मुझको लूट लिया वा मोहम्मदा

क्या वक़्त को हक़ ए मोहब्बत करे अदा

है ये ज़ुल्म और दो आलम का मुक़्तरा

उन्नीस सौ है ज़ख्म तनय चक चक पार

ज़ैनब निकल हुसैन तड़पता है ख़ाक पर

ज़हरा इधर तड़प के गिरी और हराम उधर

कातिल ने तेघ फिर दी सय्यद के हलके पर

हातिफ़ ने आसमां से सदा दी पुकार

फरियाद कट गया पिसर ए फातिमा का सार

बे जान लब ए फ़ुरात ए शाहे तश्ना लब हुआ

मारा गया इमामे ज़मान तू ग़ज़ब हुआ

देखा जो अहलेबैत ए नबी ने उठाया के सर

नईज़े पे आफ़ताब ए इमामत पड़ा नज़र

दौड़े सरों पर ख़ाक उधते बा चश्मे तार

देखा ये हाल जब सारे बालीं हुवा गुजर

ताज़ा लहु रावण है तनय पश पश से

तकबीर की सदा चली आती है लाश से

पर्दा उलट के बिन्ते अली निकली बा चश्मे ए तर

लरज़ान क़दम ख़मीदा कमर ग़र्के ख़ून जिगर

चारो तरफ पुकारती थी सर को पिट कर

ऐ कर्बला बता तेरा मेहमान है किधर

अम्मा क़दम अब उठते नहीं तशनाकम के

पाहुंचा दो लाश पर मेरे बाजु को थाम के

भय्या में अब कहां से तुम्हें लाऊं क्या करूं

क्या कहके अपने दिल को मैं समझाऊं क्या करूं

किसकी दुहाई दून किसे चिल्लाऊं क्या करूं

बस्ती पराई है मैं किधर जाऊं क्या करूं

दुनिया तमाम उजड़ गई विराना हो गया

बैठूं कहां के घर तो अजाखाना हो गया

है है तुम्हारे आगे न ख्वाहर गुजर गई

भय्या बताओ क्या ताहे खंजर गुजर गई

आई सदा न पूछ जो हम पर गुजर गई

दुख की बात है कि शुक्र जो गुजर गई, बेहतर गुजर गई

सर काट गया हमी तू आलम से फिराग़ है

गर है तू बस तुम्हारी जुदाई का दाग है

हदन आशिक़ों हुसैन के आह ओ बुका करो

ज़हरा का साथ दो मदद ए मुस्तफा करो

हक़ ए मोहब्बत ए शाहे वाला अदा करो

बे सर हुवे हुसैन कयामत बाप करो

समझो शरीक ए मजलिस ए मातम रसूल को

सब मिलके दो हुसैन का पुरसा बतूल को

बस ऐ अनीस ज़ौफ़ से लार्ज़न है बैंड बैंड

आलम में यादगार रहेंगे ये चांद बंद

टपके क़लम से ज़ौफ़ में क्या क्या बुलंद बंद

आलम पसंद लफ्ज़ें हैं सुल्तान पसंद बैंड

ये फ़सल और ये बज़्म ए अज़ा यादगार है

पीरी के वालवाले हैं खिज़ा की बहार

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